☼ सावधान सुनु धरु मन माहीं ☼
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नवधा भक्ति
* प्रेम मगन मुख बचन न आवा । पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥
सादर जल लै चरन पखारे । पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥ 5
॥
भावार्थ : वे प्रेम में मग्न हो गईं , मुख से वचन नहीं निकलता । बार - बार चरण - कमलों में सिर नवा रही हैं । फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया ॥ 5 ॥
दोहा :
* कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि ।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ 34 ॥
भावार्थ : उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द , मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए । प्रभु ने बार - बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया ॥ 34 ॥
चौपाई :
* पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी । प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी । अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥ 1 ॥
भावार्थ : फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं । प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया । ( उन्होंने कहा - ) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ ॥ 1 ॥
* अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ॥ 2 ॥
भावार्थ : जो अधम से भी अधम हैं , स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं , और उनमें भी हे पापनाशन ! मैं मंदबुद्धि हूँ । श्री रघुनाथजी ने कहा - हे भामिनि ! मेरी बात सुन ! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ ॥ 2 ॥
* जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥ 3 ॥
भावार्थ : जाति , पाँति , कुल , धर्म , बड़ाई , धन , बल , कुटुम्ब , गुण और चतुरता - इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है , जैसे जलहीन बादल ( शोभाहीन ) दिखाई पड़ता है ॥ 3 ॥
* नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥ 4 ॥
भावार्थ : मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर । पहली भक्ति है संतों का सत्संग । दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में
प्रेम ॥ 4 ॥
दोहा :
* गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ 35
॥
भावार्थ : तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान
करें ॥ 35 ॥
चौपाई :
* मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥ 1
॥
भावार्थ : मेरे ( राम ) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास - यह पाँचवीं भक्ति है , जो वेदों में प्रसिद्ध है । छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह , शील ( अच्छा स्वभाव या चरित्र ) , बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म ( आचरण ) में लगे रहना ॥ 1 ॥
* सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथा लाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥ 2 ॥
भावार्थ : सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत ( राममय ) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना । आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए , उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना ॥ 2 ॥
* नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ 3 ॥
भावार्थ : नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपट रहित बर्ताव करना , हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य ( विषाद ) का न होना । इन नवों में से जिनके एक भी होती है , वह स्त्री - पुरुष , जड़ - चेतन कोई भी हो - ॥ 3 ॥
* सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई । तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥ 4 ॥
भावार्थ : हे भामिनि ! मुझे वही अत्यंत प्रिय है । फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है । अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है , वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है ॥ 4 ॥
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