☼ सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं ☼
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☼ सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं ☼
पतिव्रत धर्म
चौपाई :
* अनुसुइया के पद गहि सीता । मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ निकट बैठाई ॥ 1 ॥
भावार्थ : फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी ( आत्रिजी की पत्नी ) के चरण पकड़कर उनसे मिलीं । ऋषि पत्नी के मन में बड़ा सुख हुआ । उन्होंने आशीष देकर सीताजी को पास बैठा लिया ॥ 1 ॥
* दिब्य बसन भूषन पहिराए । जे नित नूतन अमल सुहाए ॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी । नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥ 2 ॥
भावार्थ : और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए , जो नित्य - नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं । फिर ऋषि पत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं ॥ 2 ॥
* मातु पिता भ्राता हितकारी । मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥
अमित दानि भर्ता बयदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥ 3 ॥
भावार्थ : हे राजकुमारी ! सुनिए - माता , पिता , भाई सभी हित करने वाले हैं , परन्तु ये सब एक सीमा तक ही ( सुख ) देने वाले हैं , परन्तु हे जानकी ! पति तो ( मोक्ष रूप ) असीम ( सुख ) देने वाला है । वह स्त्री अधम है , जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती ॥ 3 ॥
* धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परिखि अहिं चारी ॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अंध बधिर क्रोधी अति दीना ॥ 4 ॥
भावार्थ : धैर्य , धर्म , मित्र और स्त्री - इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है । वृद्ध , रोगी , मूर्ख , निर्धन , अंधा , बहरा , क्रोधी और अत्यन्त ही दीन - ॥ 4 ॥
* ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥ 5 ॥
भावार्थ : ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति - भाँति के दुःख पाती है । शरीर , वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए , बस यह एक ही धर्म है , एक ही व्रत है और एक ही नियम है ॥ 5 ॥
* जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं । बेद पुरान संत सब कहहीं ॥
उत्तम के अस बस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥ 6 ॥
भावार्थ : जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं । वेद , पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में ( मेरे पति को छोड़कर ) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है ॥ 6 ॥
* मध्यम परपति देखइ कैसें । भ्राता पिता पुत्र निज जैसें ॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥ 7 ॥
भावार्थ : मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है , जैसे वह अपना सगा भाई , पिता या पुत्र हो ( अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है , बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है । ) जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है , वह निकृष्ट ( निम्न श्रेणी की ) स्त्री है , ऐसा वेद कहते हैं ॥ 7 ॥
* बिनु अवसर भय तें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति बंचक परपति रति करई । रौरव नरक कल्प सत परई ॥ 8
॥
भावार्थ : और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है , जगत में उसे अधम स्त्री जानना । पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है , वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है ॥ 8 ॥
* छन सुख लागि जनम सत कोटी ।
दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई ।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥ 9 ॥
भावार्थ : क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ ( असंख्य ) जन्मों के दुःख को नहीं समझती , उसके समान दुष्टा कौन होगी । जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है , वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है ॥ 9 ॥
* पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई ।
बिधवा होइ पाइ तरुनाई ॥ 10 ॥
भावार्थ : किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है , वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है , वहीं जवानी पाकर ( भरी जवानी में ) विधवा हो जाती है ॥ 10 ॥
सोरठा :
* सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ 5 क ॥
भावार्थ : स्त्री जन्म से ही अपवित्र है , किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है । ( पतिव्रत धर्म के कारण ही ) आज भी ' तुलसीजी ' भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं ॥ 5 ( क ) ॥
* सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं ।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ 5 ख ॥
भावार्थ : हे सीता ! सुनो , तुम्हारा तो नाम ही ले - लेकर स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेंगी । तुम्हें तो श्री रामजी प्राणों के समान प्रिय हैं , यह ( पतिव्रत धर्म की ) कथा तो मैंने संसार के हित के लिए कही है ॥ 5 ( ख ) ॥
चौपाई :
* सुनि जानकीं परम सुखु पावा । सादर तासु चरन सिरु नावा ॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना । आयसु होइ जाउँ बन आना ॥ 1 ॥
भावार्थ : जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया । तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा - आज्ञा हो तो अब दूसरे वन में जाऊँ ॥ 1 ॥
* संतत मो पर कृपा करेहू । सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी । सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥ 2 ॥
भावार्थ : मुझ पर निरंतर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा । धर्म धुरंधर प्रभु श्री रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले - ॥ 2 ॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे । दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥ 3 ॥
भावार्थ : ब्रह्मा , शिव और सनकादि सभी परमार्थवादी ( तत्ववेत्ता ) जिनकी कृपा चाहते हैं , हे रामजी ! आप वही निष्काम पुरुषों के भी प्रिय और दीनों के बंधु भगवान हैं , जो इस प्रकार कोमल वचन बोल रहे हैं ॥ 3 ॥
* अब जानी मैं श्री चतुराई । भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई ।
ता कर सील कस न अस होई ॥ 4 ॥
भावार्थ : अब मैंने लक्ष्मीजी की चतुराई समझी , जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आप ही को भजा । जिसके समान ( सब बातों में ) अत्यन्त बड़ा और कोई नहीं है , उसका शील भला , ऐसा क्यों न होगा ? ॥ 4 ॥
* केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी । कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा ।
लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥ 5 ॥
भावार्थ : मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी ! आप अब जाइए ? हे नाथ ! आप अन्तर्यामी हैं , आप ही कहिए । ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे । मुनि के नेत्रों से ( प्रेमाश्रुओं का ) जल बह रहा है और शरीर पुलकित है ॥ 5 ॥
छन्द :
* तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए ।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥
भावार्थ : मुनि अत्यन्त प्रेम से पूर्ण हैं , उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों को श्री रामजी के मुखकमल में लगाए हुए हैं । ( मन में विचार रहे हैं कि ) मैंने ऐसे कौन से जप - तप किए थे , जिसके कारण मन , ज्ञान , गुण और इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाए । जप , योग और धर्म समूह से मनुष्य अनुपम भक्ति को पाता
है । श्री रघुवीर के पवित्र चरित्र को तुलसीदास रात - दिन गाता है ।
दोहा :
* कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ 6 क ॥
भावार्थ : श्री रामचन्द्रजी का सुंदर यश कलियुग के पापों का नाश करने वाला , मन को दमन करने वाला और सुख का मूल है , जो लोग इसे आदरपूर्वक सुनते हैं , उन पर श्री रामजी प्रसन्न
रहते हैं ॥ 6 ( क ) ॥
सोरठा :
* कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ 6 ख ॥
भावार्थ : यह कठिन कलि काल पापों का खजाना है , इसमें न धर्म है , न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है । इसमें तो जो लोग सब भरोसों को छोड़कर श्री रामजी को ही भजते हैं , वे ही चतुर हैं ॥ 6 ( ख ) ॥
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